नवाए गुमराह-ए-शब / जावेद अनवर
ए ख़्वाब-ए-ख़न्दा
तुझे तो मैं ढ़ूँढ़ने चला था
मुझे ख़बर ही नहीं थी तू मेरी उँगलियों में खिला हुआ है
मेरे सदफ़ में तेरे ही मोती हैं
मेरी जेबों में तेरे सिक्के खनक रहे हैं
नवाए गुमराह-ए-दश्त-ए-शब के नुजूम तेरी हथेलियों पर चमक रहे हैं
मेरे ख़ला में तमाम सम्तें तेरे ख़ला से उतर रही हैं
मुझे ख़बर ही ना थी
कि मेरी नज़र की ऐनक में तेरे शीशे जड़े हुए हैं
तुझे तो मैं ढ़ूँढ़ने चला था
तुझे तो मैं ढ़ूँढ़ने चला था!
किसी सलीब-ए-कुहन पे, दार-ओ-रसन के तारीक रास्तों की
थकन में ,.फरहाद कोहकुन की सदाए सद-चाक में, किसी चौक
में उबलते हुए लहू में खिले गुल-ए-तिफ़्ल-ए- बे-गुनाह के बिखरते रंगों
की उँगली थामे तुझे तो मैं ढ़ूँढ़ने चला था
शब-ए-तरब है
शब-ए-तरब में ना साज़ उतरे ना नूर बिखरा
ना बादलों ने फुवार भेजी
ना झील ने माहताब उगला
शब-ए-तरब है ए ख़्वाब-ए-ख़न्दा !
शब-ए-तरब में मेरी तलब का रबाब बन जा
बुझी रगों में शराब बन जा
ए ख़्वाब-ए-ख़न्दा, मेरी अँगीठी का ख़्वाब बन जा
कि शब का आहन पिघलने तक मेरी चिमनियों के धुएँ में
जुगनू मल्हार गाएँ