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नव ब्रह्म पिशाच / ज्योत्स्ना मिश्रा

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नव ब्रह्म पिशाच
अब पल है, मौका है
स्वीकार लो

स्वीकार लो कि
आस्तीनों के किनारों पर
अब भी मिटे नहीं
लहू के छीटें,
बार बार सदियों तक
धोने के बाद भी

स्वीकार लो भाई!
ये दंश विरासत है
इन्हें सहना ही होगा
पीढ़ी दर पीढ़ी
संचित अभियोग
अब तुम्हे कटघरे में खड़ा रखेंगें
जिन प्रश्नों के
सन्दर्भों तक से परिचित नहीं तुम
उनके उत्तर देने होंगे

या तो कुबूलने होंगें
सभी गुनाह सर झुका कर
या और गुनाह करने को
हो लो तैयार!

सारे चन्दन माथे लगे
अब सर्प भी स्वीकारने होंगें

ओ! इतिहास में दबे पड़े
सिंहासनों के उत्तराधिकारियों!
रस्ते से परे होकर खड़े हो
कि नव युग के ब्राह्मण
तत्पर हैं आसीन होने को
तुम चलो राह के कंटक बीनो
कि बिछाए थे तुम्हारे पूर्वजों ने ये

इस रास्ते की तरह
इन काँटों के भी तुम्ही हो वंशज!