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नहीं बनती है कविता / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
ऐसी कितनी शामें गुज़री हैं
इस कमरे की दीवारों के साथ
आसमान देखते हुए
रंग बदलता आसमान
नीला आसमां सुर्ख़ होता
फिर सारे रंग उड़ गए हैं
रह गया है काला रंग
खिड़की से आती है बारिश
अपनी ठण्डी उँगलियों से
छूती है मुझे
यह बरसती है
सुराख़ वाले घरों में
यह बरसती है
ऊँचे मकानों पर
बारिश में भीगी कुछ पंखुड़ियाँ
बारिश में भीगे कुछ शब्द
नहीं बनता फूल
नहीं बनती कविता