नारायणी / दिनेश कुमार शुक्ल
पहाड़ों से उतर पहली बार
गंडक
आँख भरकर देखती है क्षितिज का विस्तार 
चम्पारण्य में
ईख के खेतों में किरणें झलमलाती हैं 
तप रहा है सूर्य- पक रहा है रस 
लुप्त होते जा रहे हैं थारुओं के गाँव 
कोल्हू चल रहे हैं उठ रहा है धुआँ 
याद भी आता नहीं अब नये गुड़ का स्वाद 
बन्द शक्कर-कारखाने गल रही हैं चिमनियाँ 
गल रहे हैं ब्वायलर 
यहीं बिल्कुल पास में है चौरीचौरा 
मूर्तियों में भी कहीं दिखते नहीं गाँधी 
चुप रहो और सुनो 
कुछ कह रही नारायणी 
बर्फ पिघली है हिमालय में
बहुत गहरी बहुत गहरी 
बहुत गहरी है यहाँ नारायणी 
पार पाना कठिन है पार जा पाना कठिन
बहुत नीचे नहीं है पाताल 
धरती बहुत कोमल है यहाँ
भूल से अँगूठे से भी कुरेदा तो 
क्षीर सागर उमड़ता आ जायगा ऊपर 
चुहचुहाता 
सँभल कर चलना...
अब यहाँ से फैलता है पाट गंडक का 
पार जाना सरल लेकिन पार पाना कठिन है 
बाढ़ में डूबे हुए हैं खेत डूबी कर्ज में दुनिया 
उठो सारन! उठो चम्पारन! जगाती है तुम्हें नारायणी...!
 
	
	

