नासमझी के ख़िलाफ़ / राम सेंगर
नासमझी के ख़िलाफ़
युद्ध में न जीते तो क्या जीते —
बुकरी का बाल !
गदगदायमान है
भँग पर तपस्या में लीन यती
रमा हुआ
जाने किस रँगत में मन
सौम्य बदहवासी को
शीशे में देख-देख चाट मची
दलदल को
नितरा जल कहें गुणीजन ।
कागज़ के घोड़े पर
राजा के छद्म की सवारी है
खुल बाहर
लेकर सब दहकते सवाल ।
कट्टस करके जिसे
विज्ञमण्डली ने हड़बोंग रचा
बीज वही
इसे नहीं डिबिया में धर ।
व्यँग्यचित्र में अभी
दृश्यबन्ध का-सा विद्रूप कहाँ
भर इसमें
प्राणों से खींच कर असर ।
पेट-पट्टियाँ-नारे —
तैनाती-हत्यारे-लोकराज
मथनी से
फ़तवों के राज सब निकाल !
लोहा लेना अभी
चित्त में अड़े डर के हौवे से
बद्गुमान
निजता की काँचुरी उतार ।
भेद कर अरचना को
फूट किसी झरने-सा कविता में
लिए-लिए
फिरता क्यों प्रक्रिया का भार ।
कमरी ये, कम्बल वे
अनबदले बदला है संवत्सर
एक गेंद
तू भी इस हवा में उछाल !