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निंद्या कौ अंग / साखी / कबीर

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लोगे विचारा नींदई, जिन्ह न पाया ग्याँन।
राँम नाँव राता रहै, तिनहूँ, न भावै आँन॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-

निंदक तौ नाँकी, बिना, सोहै नकटयाँ माँहि।
साधू सिरजनहार के, तिनमैं सोहै नाँहि॥2॥

दोख पराये देखि करि, चल्या हसंत हसंत।
अपने च्यँति न आवई, जिनकी आदि न अंत॥2॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥3॥

न्यंदक दूरि न कीजिये, दीजै आदर माँन।
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आँनहिं आँन॥4॥

जे को नींदे साध कूँ, संकटि आवै सोइ।
नरक माँहि जाँमैं मरैं, मुकति न कबहूँ होइ॥5॥

कबीर घास न नींदिये, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि में, खरा दुहेली होइ॥6॥

आपन यौं न सराहिए, और न कहिए रंक।
नाँ जाँणौं किस ब्रिष तलि, कूड़ा होइ करंक॥7॥
टिप्पणी: आपण यौ न सराहिये, पर निंदिए न कोइ।
       अजहूँ लांबा द्योहड़ा, ना जाणौ क्या होइ॥8॥

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठग्याँ सुख ऊपजै, और ठग्याँ दुख होइ॥8॥

अब कै जे साईं मिलैं, तौ सब दुख आपौ रोइ।
चरनूँ ऊपर सीस धरि, कहूँ ज कहणाँ होइ॥9॥778॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है।