निज़ामुद्दीन-16 / देवी प्रसाद मिश्र
लौटते हुए
गुज़रते हुए बग़ल से दरगाह के
मैंने बहुत सारी मनौतियाँ
मांगीं । कि ।
कि मेरा राजनीतिक एकांत आंदोलन में बदल जाए ।
मेरा दुःख अम्बानी की विपत्ति में ।
मुंतजर अल जैदी को अपना दूसरा जूता मिल जाए ।
बुश के घर की छत उड़ जाए ।
वित्त मंत्री एक भूखे आदमी का
वृत्तांत बताते हुए रोने लग जाए
मेरा बेटा घड़ा बनाना सीख जाए ।
एक कवि का अकेलापन हिन्दी की शर्म में बदल जाए ।
मैंने मन्नतें माँगी कि
नए को ब्राह्मण की रसोई में घुस आए
कुकुर की तरह दुरदुराया न जाए और
हिन्दी में अलग-थलग पड़ी विपत्ति की
एक कहानी और एक कविता
सारे विशेषांकों पर भारी पड़ जाए
गरीबी की रेखा के नीचे रहता हर आदमी
रेखा के नीचे नीचे नीचे
चलता चलता चलता
निजामुद्दीन पहुँच जाए जहाँ गाँव को
गुड़गाँव में न बदला जाए बेशक
आजमगढ़ को लालगढ़ में बदल दिया जाए मतलब कि
शहरों को फिर से बसाया जाए
और
और सोचा जाए
और सोचा जाए
और सोचा जाए
और सोचा जाए लेकिन फेनान की तरह
और रहा जाए लेकिन किसान की तरह
और गूँजा जाए लेकिन बियाबान की तरह
अब घर लौटा जाए
निज़ामुद्दीन के साथ ।
फ़रीद के साथ । नींद के साथ ।
बियाबान में गूँजती हारमोनियम की
आवाज़ों जैसी नागरिकता की पुकारों के साथ ।
गुहारों के साथ ।
घर लौटा जाए
और घर छोड़ा जाए
जिसके लिए मैंने मनौती माँगी है कि
वह आदिवास में बदल जाए और मेरा बेटा
संथालों के मेले में खो जाए ।