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निश्चित / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
ताकि देख न सकूँ मैं दिन की रोशनी
ईश्वर पर्दा गिरा देता है
एक भेड़िए के मुँह से मैं अपना दिल बाहर निकाल रही हूँ
मैंने सोचा था कि यह जगह पूरी तरह पत्थरों के बीच थी
ऐसा ही है पर सब कुछ अन्धकार में
शीतलता , शीत ऋतुएँ बची रह जाती हैं
एक लड़की की देह के भीतर
- एक विधवा की तरह अकेला है
अंकारा -
दुःख के बर्फ़ से पिघल रही है मेरी देह
निश्चित ही
एक अधूरापन
एक व्यक्ति तक होने के लिए ।