निष्ठुर नियति / नितेश व्यास
हमने जगह-जगह पत्थर तोड़े,धरती खोदी
हमें कहीं नहीं मिला
युधिष्ठिर का
अक्षय भिक्षा-पात्र जो वनवास के समय उन्हें दिया था सूर्यदेव ने,
हम भी तो वनवासी हैं
हम भी हारे हुए है़ जीवन-द्यूत में
हमारे पास है खाली पात्र
जिनमें चिलचिलाता रहता हमारे बिलखते बचपन का
मासूम चेहरा
भूख की दीक्षा-विधि हमारा
पहला संस्कार है
हमें किसी गुरुकुल में नहीं मिली विधिवत् शिक्षा
हमने जो भी सीखा
ठोकरों और थपेड़ों से ही सीखा
पर हमने क्या सीखा?
तमतमाता सूरज हमारा अबोला गुरु है
जिसे नहीं चाहिये था हमारा अंगुठा
हमारा स्वेद ही उसकी गुरुदक्षिणा है और जो भटकाव है हमारा वह है प्रदक्षिणा
हमने उसे चढ़ाया है आंसुओं का विशेषार्घ्य
किसी भी पुण्यकर्म से न कटने वाले पापों की पुरातन बेड़ियां जिनकी लम्बाई हमारे जन्मों को लांघती हुई
बढ़ती ही जाती है,
सूरज के घोडों की गति से भी तीव्रगतिक
हमारा दुर्भाग्य,
किसी दूर से दिखने वाली पताका की तरह लहराता दिख जाता हमारी माताओं के गर्भ से ही
फिर भी निष्ठुर नियति देती रहती हमें जन्म पर जन्म
न जाने कौन-से अकृत-अपराध का बदला लेने के लिए।।