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न जाने वतन आज क्यों / नईम
Kavita Kosh से
न जाने वतन आज क्यों याद आया,
वो खपरैल का घर सहन याद आया।
न जाने वतन आज क्यों याद आया।
ये भाड़े के गुलमान, बूढ़ी कनीजें,
बहुत महँगी-महँगी ये नायाब चीजें;
सबकुछ तो है मेरे दैरो हरम में-
मगर बेर, तुलसी कहाँ चल के बीजें?
वो सीता की तृष्णा, वो रघुवर के बाण,
विवश तोड़ता दम हिरन याद आया।
चकाचौंध ग़रमी खिंचावों का मौसम,
दिलोजाँ पे पड़ते दबावों का मौसम;
दिखाईं, सुनाईं परोसी जतन से-
जो बाँधी गईं उन हवाओं का मौसम।
दिया दान बामन को संकल्प करते,
रखा पीठ पर वो चरण याद आया।
हुईं मुद्दतें, अब न होगा घरौंदा,
न पहला झला जेठ का होगा सौंधा;
खाने के महुओं से खींची गई जो-
पिए रामदिनवा पड़ा होगा औंधा।
जले पाँव, माथे पे सूरज का बोझा-
अनायास अपना मरण याद आया।