भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंखों वाला घोड़ा (कविता) / राम सेंगर
Kavita Kosh से
लिए फिर रहा कहाँ - कहाँ यह पंखोंवाला घोड़ा ।
काम बहुत करना है, लेकिन, समय बचा है थोड़ा ।
अनुभव की प्रामाणिकता का, क्या सबूत दें उसको,
समय समीक्षक पूछ रहा है, मार - मार कर कोड़ा ।
जोड़ हड्डियों के पूरे खुल गए, किसे बतलाते,
अलग - अलग कोणों से इस गुड़िया को सबने तोड़ा ।
अपने होने की प्रतीति के चिह्न रूप हैं केवल ,
पत्थर पर रख, दबा पाँव से, इतना गया निचोड़ा ।
रचनाकाल : 15 दिसम्बर 1978