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पंचम अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥१॥

है ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ , गूढ़, असीम अक्षर ब्रह्म मैं,
विद्या - अविद्या जड़ व् चेतन , निहित दोनों अगम्य में।
जड़ वर्ग क्षर चेतन अमर,विद्या, अविद्या नाम है,
दोनों का ईशानम प्रभु , शासक परम है अनाम है॥ [ १ ]

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥२॥

एकमेव ही विश्वानि रूपों , कारणों और योनियों,
पर करे आदित्य परब्रह्म , उसके शासन में जियो.
सब ज्ञानों से संपन्न उन्नत, करता है परमात्मा ,
अति आदि दृष्टा, हिरण्यगर्भ का देखे सब विश्वात्मा॥ [ २ ]

एकैक जालं बहुधा विकुर्वन्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः ।
भूयः सृष्ट्वा पतयस्तथेशः सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥३॥

अथ सृष्टि काले देव तत्वों से , जाल को निर्मित करे,
फ़िर कर विभाजन प्रलय काले , पुनि वही संचित करें.
पूर्व इव पुनि सृष्टि काले , लोक पालों को रचे,
फिर स्वयं आधिपत्य करता है, विश्व सब उसके रचे॥ [ ३ ]

सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् ।
एवं स देवो भगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥४॥

रवि एक ही चहुँ ओर ज्यों सारी दिशा ज्योतित करे
वैसे अकेला ब्रह्म सारी, सृष्टि को नियमित करे,
वही वरन करने योग्य अद्भुत आत्म भू अखिलेश है,
आधिपत्य कर्ता, सृष्टि का, कल्याण कर्ता महेश है॥ [ ४ ]

यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः ।
सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥५॥

संकल्प द्वारा ब्रह्म पुनि, होता प्रगट निज रूप में,
कर्ता त्रिगुण सृष्टि रचित , फल कर्म रूप अनूप में.
अथ विविध रूपों योनियों में, सृजित जग विस्तृत महे,
अति आदि कारण ब्रह्म की, करुणा से ही आवृत रहे॥ [ ५ ]

तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥६॥

प्रभु मर्म, विद्या रूप वेदों के, उपनिषद अति गूढ़ हैं,
ब्रह्म के निःश्वास वेद हैं, ब्रह्म मर्म निगूढ़ हैं.
हैं विज्ञ ब्रह्मा ब्रह्म से और अन्य ऋषि भी जानते,
निश्चय ही तन्मय ब्रह्म में हो , ब्रह्म को पहचानते॥ [ ६ ]

गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥७॥

गुण कर्म रूप सकाम वृतियों से बंधा जीवात्मा,
पुनि जन्म - मृत्यु कर्म के अनुरूप पाता है आत्मा.
अथ तीन वृतियां , तीन गतियों का गमन प्रेरित करें ,
निज कर्म रूप विधान गति , जीवात्मा निश्चित करे॥ [ ७ ]

अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः ।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥८॥

अंगुष्ठ के परिमाण मय, रवि रूप सम जीवात्मा ,
सूजे की अग्रिम नोक सम , ज्ञानी कहे जीवात्मा .
ममता अहंता मय है अतः ब्रह्म से लगे भिन्न है,
अन्यथा जीवात्मा परमात्मा से तो अभिन्न है॥ [ ८ ]

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥९॥

यदि बाल की एक नोक के सौ भाग , पुनि सौ भाग हों,
कल्पित उसी के एक भाग समान हो, जो विभाग हो.
उसके बराबर जीव का है स्वरुप , अथ यह जानिए ,
अति सूक्ष्म , अति उससे भी लघु , जीवात्मा को जानिए॥ [ ९ ]

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥१०॥

जीवात्मा न तो नपुंसक , न ही पुरूष न ही नारी हैं,
यह देह जैसी ग्रहण करता, वैसा ही रूप धारी है,
जीवात्मा तो सर्व भेद से , शून्य है अविकार है,
अथ नर व् नारी रूप में तो , देह के ही प्रकार है॥ [ १० ]

सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रासांबुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म ।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥११॥

स्पर्श दृष्टि व् मोह वृष्टि , भोजन तथा संकल्प से,
हों गर्भ धारण , देह वृद्धी, भांति विविध विकल्प से,
बहु विविध लोकों देह में, अनुक्रम से होती प्राप्त है,
कर्मानुरूप जीवात्मा , देहों में होती व्याप्त है॥ [ ११ ]

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥१२॥

निज संस्कारों , अहम ममता की बुद्धिमन अनुरूप ही,
उसे सूक्ष्म और स्थूल धारण , देह हो तद्रूप ही.
संयोग कारण योनियों का तो अन्य ही अव्यक्त है,
निज कर्म मूल हैं मूल कारण , मूल मंत्र ही व्यक्त है॥ [ १२ ]

अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥

जिसने स्वयं यह विश्व वेष्ठित , कर लिया निज रूप में,
बहु रूप धारी ब्रह्म अनुपम , मिलते रूप अनूप में,
दुर्गम जटिल , जग व्याप्त ब्रह्म को, जो भी मानव जानते,
उसे कोई बंधन अहम् ममता , के न किंचित बांधते॥ [ १३ ]

भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥१४॥

काया विहीन तथापि श्रद्धा भक्ति से, जो ग्राह्य है,
सृष्टि रचयिता सूक्ष्म संहारक है, अन्तः बाह्य है.
सोलह कलाओं का रचयिता , स्वस्ति शुभ आराध्य है,
जो जानता भव मुक्त है, यदि ब्रह्म उसका साध्य है॥ [ १४ ]