भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पग ध्वनि / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
किसी की पावनी पग ध्वनि
मुझे
अक्सर बुलाती है।
कभी है
द्वार पर दस्तक
हवाओं की
सनन-सन-सन
कभी फिर दौड़ पड़ने को
मुझे कहता
मेरा ही मन
कभी नदिया उफनती जब
पुलिन को छप छपाती है
किसी की पावनी पग ध्वनि
मुझे अक्सर बुलाती है
हज़ारों हाथ फैलाए
संदेशे हैं समुन्दर के
पखेरू कह रहे जैसे
खुले हैं द्वार अम्बर के
क्षितिज की अरुणिमा में
रूप की छवि
झिलमिलाती है
अँधेरो में
उजालों के
खुले वातायनों से जो
घुली है प्राण में
इन मौन के
मधु गायनों से जो
दृवित वह पीर
पत्थर के अधर पर
गुनगुनाती है
किसी की पावनी पग ध्वनि
मुझे अक्सर बुलाती है।
30.11.2017