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पतझर और बसंत / महेन्द्र भटनागर

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उड़ रही है धूल !
उड़ रही है, धूल !
डालियों में आज
खिल रहे हैं फूल !
खिल रहे हैं फूल !
झर रहे हैं पात,
भर रहे हैं पात,
आज दोनों बात !
आ रहा ऋतुराज
सृष्टि का करता हुआ
फिर से नया ही साज !
पिघला बर्फ़
नदियों के बढ़े हैं कूल !
उड़ रही है धूल !
1949