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पत्थर / उमा अर्पिता

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जब तुम मेरे
भविष्य का
आधार बनते-बनते
अतीत बन चले थे, तभी मैं
धीरे-धीरे
फूल से पत्थर में
बदलने लगी थी!
लगभग--
बदल ही चुकी थी!
भूल गई थी कभी अपने
फूल होने के अहसास को…

लेकिन आज अचानक
तुम--
वर्तमान बन
भोर की किरणों के सदृश
मेरे पत्थरमय जीवन में
रस भरने लगे, तो
बरसों से दबा/सोया
फूल होने का अहसास
अपने व्यक्तित्व को
विस्तार देने के लिए मचल उठा!

आखिर--
क्यों दे रहे हो तुम
मुझे इतना प्यार?
ऐसा न हो, कि अब मैं--
पत्थर से मोम हो जाऊँ
और--
तुम्हारा गर्म स्पर्श मुझे पिघलाकर
अपनी चाहत की
दिशा में बहा ले जाए…

ओ मेरे अतीत के सुखद स्वप्न,
तुम एक बार फिर मेरे वर्तमान में
मुसाफिर बनकर आए हो
यानी कि एक बार फिर
अतीत बन जाने को आए हो…
इतना सब जानते/समझते भी
क्यों क्षण भर का मोह
मुझे मोह रहा है?
जाओ, मुझे और मत छलो…
हो सके तो लौट जाओ
और--
मुझे पत्थर ही रहने दो!