पत्रमुख जंगल / ओमप्रकाश सारस्वत
जंगल में घुसते हुए
मुझसे जंगल ने कहा एक दिन कि
तुम मेरी हरियाली को
दृष्टि में बाँधकर ले जाओगे
और उसे शहर में जाकर
कविता बना, गाओगे
मैं जानता हूँ 
कवि यहाँ क्यों आते हैं
वे प्रेम-पढ़ती चिड़ियों को 
मूर्ख़ बनाते हैं
या फिर वे 
शहर को जंगल का
डर दिखाकर 
तेंदुओं की कथा सुनाते हैं
पर वे पता नहीं 
यह क्यों कर भूल जाते हैं कि
मेरे इन पुष्पित पलाशों में
सात सौ पाँच चौपाईयों का
सौहार्द फूलता है
विश्वलय का समति झूला
मेरे यहाँ सतत् झूलता है
देखो यह मैं ही हूँ
जो शेर की जंगल में भी 
हिरणों को जिवाता हूँ
यह मैं ही हूँ जो
नन्दर के बाद 
चन्दन सरसाता हूँ
मेरी इन डालियों पर
कोयल कूकती है
मेरी इन वल्लरियों पर
गिलहरी झूलती है
मेरे यहाँ परम निरीह 
दूब भी जीती है
मेरे यहाँ फूलों का रस 
चींटी भी पीती है
क्या है तुम्हारे यहाँ भी
कोई ऐसा समयोत्सव
जहाँ कीड़ी और कुंजर 
दोनो साधिकार जीते हों 
और बिना किसी भय के अपनी पूरी उम्र जीते हों
मैंने तो आदमी को बस 
किंशुक ही जाना है
या उसके स्वभाव से फिर 
स्वार्थ ही छाना है
मित्र! मुझे पता नहीं क्यों रह-रह
जंगल कह रहा है पत्रमुख कि
मनुष्य आपसी स्नेह के अभाव में
रेत होता जा रहा है 
वह हरियाली को गाकर भी
मरुस्थल ढोता जा रहा है।
घटा ने
मरु पर
बूँद भर करुणा उडेली
और आश्वास्त हो गयी कि
उपेक्षितों पर बून्द भर करुणा भी
पावस की तरह 
उपकारी कहलाने के लिए पर्याप्त है
फिर वह,संचित जल को 
दूसरे पादपों पर बरसाती रही
वह नूतन फूल खिलाती रही
सारे पादप उसका आभार मनाते रहे
पर वह बहुत भोली
(शायद बहुत चतुर भी)
जैसे कि जानती न हो कि
जो सदियों से
सिन्धु से कम न स्वीकार कर
अभिशप्त मरुस्थल हो गया है
वह क्षण भर की करुणा से
स्नेह के किस सागर को भर सकेगा?
वह मन को गागर भी कैसे कर सकेगा??
वय हो तब तलक संतप्त रहेगा
जब तलक,घटा
प्रलय-घटा बन कर 
उसके रोम-रोम में 
ताल तलाईयों की तरह नहीं भर जाती 
उसे सिन्धु होने की सीमा तक 
रसमय नहीं कर जाती ।
	
	