भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पथरा गई आँखें / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
उत्खनन में जब मिले अवशेष
वर्जना-दंशित समर्पण के
देखकर पथरा गईं आँखें ।
कमल-दल की बंद मुट्ठी खोल
'स्वस्ति' तक लिख सो गए खगपंख
जग उठे ज्यों शापनिद्रा-मुक्त
कल्पतरु वनदेवता के अंक
थरथराते होठ के संदेश
यों जड़े थे साथ दर्पण के
देखकर पथरा गईं आँखें ।
चंद्रमुख पर रचे हल्दी-लेप
धो, हुई पीली समय की धार
सम्पुटित दृग में मिले हिमदग्ध
मदन के शर, उमा का शृंगार
बन गये थे नखक्षत विधुलेख
गीत सारे निशा-वंदन के
देखकर पथरा गईं आँखें ।
उड़ गया कुछ देर सहकर धूप
स्थिर शिखा-सी मानिनी का रंग
चल सका बिछलन भरे इस पंथ
कौन ब्रज से द्वारका तक संग ?
राधिका को टेरते अनिमेष
दो नयन शरविद्ध मोहन के
देखकर पथरा गईं आँखें ।