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परछाई / पवन चौहान
Kavita Kosh से
वह परछाई बनकर भी
चलती रही मुझसे परे-परे
करती रही मुझसे छूटने का
असफल प्रयास
कचोटती रही मेरी नस-नस को
करती रही जैसे मुझसे जलन
मुझसे पीड़ा/ डाह
न जाने क्यों?
शायद गलती से आ पहुँची थी
मेरे भीतर वह
उसके विचारों का नहीं था
शायद मैं
वह भटकाना चाहती थी मुझे
उन टेढ़े-मेढ़े, गलत रास्तों पर
जो मेरे ख्यालों से थे बहुत परे
दिशाएं दोनों की अलग-अलग
एक-दूसरे से विपरीत
एक छोर से चिपकी हुई लेकिन
न चाहते हुए भी
मजबूरीवश
चलती रही वह मेरे साथ
अपने स्वार्थ को नापते हुए
क्योंकि वह भलीभांति जानती थी
मेरा जिंदा रहना ही
उसका जिंदा रहना है।