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परिवर्तन / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
परिवर्तन की चाह
कर रही है परिवर्तन
जबसे कुर्सी मिली
भूलकर वादे सारे
नव सपने बन गए
पुराने के हत्यारे
झूठ दिखाना सीख
गया फिर मन का दर्पण
सागर में मिल गई
नदी की जबसे घारा
सागर सा हो गया
नदी का पानी खारा
रहा प्यास में कहाँ
नदी का अब आकर्षण
जिनका किया विरोध
उन्हीं को फिर अपनाया
बँटे हुए को बांट-
बांट सबको दिखलाया
खोज लिया परिवर्तन का
फिर से इक साधन