परिवर्त्तन / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
ओ बहते नद! आज हो गई क्या यह दशा तुम्हारी!
कहाँ खो गई मनमोहक वह मधुरिम सुषमा सारी?
वह संगीतमयी लहरें जो करती थीं मतवाली।
शुभ्र चाँदनी के आंचल में क्रीड़ा नित्य निराली॥
वह कल कल छल छल मय स्वर से वशीकरण का बोना।
करता था कितने ही प्रणयी जन पर जादू टोना॥
लगता जैसे स्वयं चाँदनी अनुपम छवि छिटकाती।
बहती जाती स्वर लहरी के साथ धरा पर गाती॥
था तुझमें प्रतिबिम्ब गगन के दीपों का जब पड़ता।
देख-देख तब मेरे उर में था उल्लास उमड़ता॥
किन्तु आज सब बदल गईं वे सरस सुहानी रातें।
स्वप्न तुल्य हो गईं सभी सुखमय अतीत की बातें॥
निबिड़ अमा के अन्धकार में वह सौन्दर्य अनूठा।
सुप्त हो चुका भाग्य देव ही आज तुम्हारा रूठा॥
रहा न अब संगीत शेष, वह लहरों की शुचि माला।
वह रजनी का दृश्य मनोरम मन को हरने वाला॥
मूक हुए निस्तब्ध निशा में, एकाकी चिन्तित से।
बोलो तुम क्या सोच रहे हो, होकर अब विस्मित से?
कहो मुझे इस व्योम धरा के अन्तर का कुछ कारण हो।
परिवर्त्तन का भेद बता कर संशय करो निवारण॥
पर हाँ! अब तुम बदल चुके हो यह सारा जग कहता।
मैं कहता कोई न बदलता समय बदलता रहता॥
समय बड़ा बलवान, भला वह कब रोके रुक पाता?
विश्व विजेता मानव भी उसके सन्मुख झुक जाता॥
तुम हो वही, वही सब कुछ है नाम धाम जल धारा।
तुम तो बदले नहीं, समय ही बदला आज तुम्हारा॥