परिशिष्ट-1 / कबीर
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आठ जाम चौंसठि घरी तुअ निरखत रहै जीव।
नीचे लोइन क्यों करौ सब घट देखौ पीउ॥1॥
ऊँच भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ।
ताते भली मधूकरी संत संग गुन गाइ॥2॥
अंबर घनहरू छाइया बरिष भरे सर ताल।
चातक ज्यों तरसत रहै, तिनकौ कौन हवाल॥3॥
अल्लह की कर बंदगी जिह सिमरत दुख जाइ।
दिल महि साँई परगटै बुझै बलंती लाइ॥4॥
अवरह कौ उपदेस ते मुख मैं परिहै रेतु।
रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु॥5॥
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेसु।
हम राखे गुरु आपने उन कीनो आदेसु॥6॥
आखी केरे माटूके पल पल गई बिहाइ।
मनु जंजाल न छाड़ई जम दिया दमामा आइ॥7॥
आसा करिये राम की अवरै आस निरास।
नरक परहि ते मानई जो हरिनाम उदास॥8॥
कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।
नागे पांवहु ते गये जिनके लाख करोरि॥9॥
कबीर इहि तनु जाइगा कवने मारग लाइ।
कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ॥10॥
एक घड़ी आधी घड़ी आधी हूं ते आध।
भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ॥11॥
एक मरंते दुइ मुये दोइ मरंतेहि चारि।
चारि मरंतहि छंहि मुये चारि पुरुष दुइ नारि॥12॥
ऐसा एक आधु जो जीवत मृतक होइ।
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखौ तत सोइ॥13॥
कबीर ऐसा को नहीं इह तन देवै फूकि।
अंधा लोगु न जानई रह्यौ कबीरा कूकि॥14॥
ऐसा जंतु इक देखिया जैसी देखी लाख।
दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक॥15॥
कबीर ऐसा बीजु सोइ बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहिर फल पंखी केल करंत॥16॥
ऐसा सतगुर जे मिलै तुट्ठा करे पसाउ।
मुकति दुआरा मोकला सहजै आवौ जाउ॥17॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीन।
मरने ते क्या डरपना जब हाथ सिधौरा लीन॥18॥
कंचन के कुंडल बने ऊपर लाख जड़ाउ।
दीसहि दाधे कान ज्यों जिन मन नाहीं नाउ॥19॥
कबीर कसौटी राम की झूठा टिका न कोइ।
राम कसौटी सो सहै जो मरि जीवा होइ॥20॥