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परिशिष्ट-20 / कबीर

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रे जिय निलज्ज लाज तोहि नाहीं। हरि तजि कत काहू के जाही।
जाको ठाकुर ऊँचा होई। सो जन पर घर जात न सोही॥
सो साहिब रहिया भरपूरि। सदा संगि नाहीं हरि दूरि॥
कवला चरन सरन है जाके। कहू जन का नाहीं घर ताके।
सब कोउ कहै जासु की बाता। जी सम्भ्रथ निज पति है दाता॥
कहै कबीर पूरन जग सोई। जाकै हिरदै अवरु न होई॥181॥

रे मन तेरा कोइ नहीं खिचि लेइ जिन भार।
बिरख बसेरा पंखि कर तैसो इहु संसार॥
राम रस पीया रे जिह रस बिसरि गये रस और।
और मुये क्या रोइये जा आपा थिर न रहाइ॥
जा उपजै सो बिनसिहे दुख करि रोवै बलाइ।
जह की उपजी तह़ रची पीवतु मरद न लाग॥
कह कबीर चित चेतिया राम सिमिर बैराग॥182॥

रोजा धरै मनावै अल्लहु स्वादति जीय सँघारै।
आपा देखि अवर नहीं देखै काहे कौ झख मारै॥
काजी साहिब एक तोही महि तेरा सोच बिचार न देखै।
खबरि न करहिं दीन के बौरे ताते जनम अलेखै॥
साँच कतेब बखनै अल्लहु नारि पुरुष नहिं कोई।
पढ़ै गुनै नाहीं कछू बौरे जो दिल महि खबरि न होई॥
अल्लहु गैव सगल घट भीतर हिरदै लेहु बिचारी।
हिंदू तुरक दुइ महि एकै कहै कबीर पुकारी॥183॥

लंका सा कोट समुद्र सी खाई। तिह रावन घर खबरि न पाई।
क्या माँगै किछू थिरु न रहाई। देखत नयन चल्यो जग जाई॥
इक लख पूत सवा लख नाती। तिह रावन घर दिया न बाती॥
चंद सूर जाके तपत रसोई। बैसंतर जाके कपरे धोई॥
गुरुमति रामै नाम बसाई। अस्थिर रहै कतहू जाई॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई राम नाम बिन मुकुति न होई॥184॥


लख चौरासी जीअ जोनि महि भ्रमन नंदुबहु थाको रे।
लगति हेतु अवतार लियो है भाग बड़ी बपुरा को रे॥
तुम जो कहत हौ नंद को नंदन नंद सु नंदन काको रे॥
धरनि अकास दसों दिसि नाहींे तब इहु नंद कहायो रे॥
संकट नहीं परै जोनि नहिं आवै नाम निरंजन जाको रे।
कबीर को स्वामी ऐसो ठाकुर जाकै माई न बापो रे॥185॥

विद्या न पढ़ो वाद नहीं जानो। हरि गुन गथत सुनत बैरानो।
मेरे बाबा मैं बौरा, सब खलक सयानो, मैं बौरा॥
मैं बिगरो बिगरै मति औरा। आपन बौरा राम कियौ बौरा॥
सतिगुरु जारि गयो भ्रम मोरा॥
मैं बिगरे अपनी मति खोई। मेरे भर्मि भूलो मति कोई।
सो बौरा आपु न पछानै। आप पछानै त एकै जानै॥
अबहिं न माता सु कबहुँन भाता। कहि कबीर रामै रंगि राता॥186॥

बिनु तत सती होई कैसे नारि। पंडित देखहु रिदे बिचारि॥
प्रीति बिना कैसे बँधे सनेहू। जब लग रस तब लग नहिं नेहू॥
साह निसत्तु करै जिय अपनै। सो रमय्यै कौ मिलै न स्वपने॥
तन मन धन गृह सौपि सरीरू। सोई सोहागनि कहै कबीरू॥187॥

बिमल अस्त्रा केते है पहिरे क्या बन मध्ये बासा॥
कहा भया नर देवा धोखे क्या जल बौरो गाता॥
जीय रे जाहिगा मैं जाना अविगत समझ इयाना।
जत जत देखौ बहुरि न पेखौ संग माया लपटना॥
ज्ञानी ध्वानी बहु उपदेसी इहु जन सगली धंधा।
कहि कबीर इक राम नाम बिनु या जग माया अंधा॥188॥

बिषया ब्यापा सकल संसारू। बिषया लै डूबा परवारू।
रे नर नाव चौंडि कत बोड़ी। हरि स्यो तोड़ि बिषया संगि जोड़ी॥
सुर नर दाधे लागी आगि। निकट नीर पसु पीवसि न झागि॥
चेतत चेतत निकस्यो नीर। सो जल निर्मल कथन कबीर॥189॥

बद कतेब इकतरा भाई दिल का फिकर न जाई।
टुक दम करारी जौ करहु हाजिर हजूर खुदाई।
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरि परेसाना माहि।
इह जु दुनिया सहरु मेला दस्तगीरी नाहि॥
दरोग पढ़ि पढ़ि सुखी होह बेखबर बाद बकाहिं।
हक सच्च खालक खलक म्याने स्याममूरति नाहि॥
असमान म्याने लहंग दरिया गुसल करद त बूंद।
करि फिकरु दाइम लाइ चसमें जहँ तहाँ मौजूद॥
अल्लाह पाक पाक हैं सक करो जे दूसर होइ।
कबीर कर्म करीम का उहु करे जानै सोइ॥190॥

बेद कतेब कहहु मत झूठेइ झूठा जो न बिचारै।
जो सब मैं एकु खुदा कहत हौ तौ क्यों मुरगी मारै॥
मुल्ला कहहु नियाउ खुदाई तेरे मन का भरम न जाई।
पकरि जीउ आन्या देह बिनती माटी कौ बिसमिल किया॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलाला क्यों कीया॥

क्या उज्जू पाक किया मुह धोया क्या मसीति सिर लाया।
जौ दिले मैंहि कपट निवाजे छूजारहु क्या हज काबै जाया॥
तू नापाक पाक नहीं सूक्ष्या तिसका मरम न जान्या॥191॥

बेद की पुत्री सिंमृति भाई। सांकल जबरी लैहै आई।
आपन नगर आप ते बाँध्या। मोह कै फाधि काल सरु साध्या॥
कटी न कटै तूटि नह जाई। सो सापनि होइ जग को खाई॥
हम देखत जिन्ह सब जग लूट्या। कहु कबीर मैं राम कहि छूट्या॥192॥

बेद पुरान सबै मत सुनि के करी करम की आसा।
काल ग्रस्त सब लोग सियाने उठि पंडित पै चले निरासा॥
मन रे सरो न एकै काजा। भाज्यो न रघुपति राजा।
बन खंड जाइ जोग तप कीनो कंद मूल चुनि खाया।
नादी बेदी गबदी मौनी जम के परै लिखाया॥
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तन दीना।
राम रागनी डिंभ होइ बैठा उन हरि पहि क्या लीना॥
अरयो काल सबै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम ज्ञानी।
कहु कबीर जन भये खलासे प्रेम भगति जिह जानी॥193॥

षट नेम कर कोठड़ी बाँधी बस्तु अनूप बीच पाई॥
कुंजी कुलफ प्रान करि राखे करते बार न लाई॥

अब मन जागत रहु रे भाई।
गाफिल होय कै जनम गवायो चोर मुसै घर जाई।
पंच पहरुआ दर महि रहते तिनका नहीं पतियारा।
चेति सुचेत चित्त होइ रहूँ तौ लै परगासु उबारा॥
नव घर देखि जु कामिनि भूली बस्तु अनूप न पाई।
कहत कबीर नवै घर मूसे दसवें तत्व समाई॥194॥

संत मिलै कछु सुनिये कहिये। मिलै असंत मष्ट करि रहियै।
बाबा बोलना कया कहियै। जैसे राम नाम रमि रहियै॥
संतन स्यों बोले उपकारी। मूरख स्यों बोले झक मारी॥
बोलत बोलत बढ़हिं बिकारा। बिनु बोले क्या करहिं बिचारा॥
कह कबीर छूछा घट बोलै। भरिया होइ सु कबहु न डोलै॥195॥

संतहु मन पवनै सुख बनिया। किछु जोग परापति गनिया।
गुरु दिखलाई मोरी। जितु मिरग पड़त है चोरी॥
मूँदि लिये दरवाजै। बाजिले अनहद बाजे॥
कुंभ कमल जल भरिया। जलौ मेट्यो ऊमा करिया॥
कहु कबीर जन जान्या। जौ जान्या तौ मन मान्या॥196॥

संता मानौ दूता डानौ इह कुटवारी मेरी॥
दिवस रैन तेरे पाउ पलोसो केस चवर करि फेरी॥
हम कूकर तेरे दरबारि। भौकाई आगे बदन पसारि॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तौ मिट्या न जाई॥
तेरे द्वारे धनि सहज की मथै मेरे दगाई॥
दागे होहि सुरन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई॥
साधू होई सुभ गति पछानै हरि लये खजानै पाई॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठरी बिचारि॥
गुरु दीनी बस्तु कबीर कौ लेवहु वस्तु सम्हारि॥
कबीर दोई संसार कौ लीनी जिसु मस्तक भाग॥
अमृत रस जिनु पाइया थिरता का सोहाग॥197॥

संध्या प्रात स्नान कराही। स्यों भये दादुर पानी माहीं।
जो पै राम नाम रति नाहीं। ते सवि धर्मराय कै जाहीं॥
काया रति बहु रूप रचाहीं। तिनकै दया सुपनै भी नाहीं॥
चार चरण कहहि बहु आगर। साधु सुख पावहि कलि सागर॥
कहु कबीर बहु काय करीजै। सरबस छोड़ि महा रस पीजै॥198॥

सत्तरि सै इसलारू है जाके। सवा लाख है कावर ताके॥
सेख जु कही यही कोटि अठासी। छप्पन कोटि जाके खेल खासी॥
सो गरीब की को गुजरावै। मजलसि दूरि महल को पावै॥
तेतसि करोडि है खेल खाना। चौरासी लख फिरै दिवाना॥
बाबा आदम कौ कछु न हरि दिखाई। उनभी भिस्त घनेरी पाई॥
दिल खल हलु जाकै जर दरुबानी। छोड़ि कतेब करै सैतानी॥
दुनिया दोस रोस है लोई। अपना कीया पावे सोई॥
तुम दाते हम सदा भिखारी। देउ जवाब होइ बजगारी॥
दास कबीर तेरी पनह समाना। भिस्त नजीक राखु रहमाना॥199॥

सनक आनंद अंत नहीं पाया। बेद पढ़ै ब्रह्मै जनम गवाया।
हरि का विलोबना विलोबहु मेरे भाई। सहज विलोबहु जैसे तत्व जाई॥
तन करि मटकी मन माहि बिलोई। इसु मटकी महि सबद संजोई॥
हरि का बिलोना तन का बीचारा। गुरु प्रसाद पावै अमृत धारा॥
कहु कबीर न दर करे जे मीरा। राम नाम लगि उतरे तीरा॥200॥