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पर्यावरण / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
मेरी ओर से लड़ने के लिए
समय नहीं था
किसी के पास
न किसी के पास शक्ति!
इतिहास
दर्शकदीर्घा में
सोया पड़ा था,
साहित्य
पुरस्कार की लाइन में
खोया खड़ा था!
सभ्यता के सिर पर
शेम्पू के झाग थे,
धर्म के दामन पर
दंगों के दाग थे!
अखबार थे
कुकर्मों की टोह में,
क्रांतियाँ
प्रतिबद्धता के मोह में!
साहस
बुझा रहा था पहेलियाँ
पौरुष
खोज रहा था सहेलियाँ!
अर्थ से अनुपस्थित
शब्दों के सिर सेहरा,
धड़ ही धड़ राजनीति
गायब था चेहरा!
लाठी ही लाठी,
लंगोटी नहीं थी,
संस्कृति विदेशों से
लौटी नहीं थी!
इस दल का स्वामी था
उस दल में
उस दल का नेता था
इस दल में,
दलदल ही दलदल था
दलदल में!