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पर जाने क्यों / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
माना इस बस्ती में धुआँ है
खाई है,
खंदक है,
कुआँ है;
पर जाने क्यों?
कभी कभी धुआँ पीने को भी मन करता है;
खाई-खंदकों में जीने को भी मन करता है;
यह भी मन करता है—
यहीं कहीं झर जाएँ,
यहीं किसी भूखे को देह-दान कर जाएँ
यहीं किसी नंगे को खाल खींच कर दे दें
प्यासे को रक्त आँख मींच मींच कर दे दें
सब उलीच कर दे दें
यहीं कहीं—!
माना यहाँ धुआँ है
खाई है, खंदक है, कुआँ है,
पर जाने क्यों?