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पलटनिया पिता-1 / अनिल कार्की

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फौजी पिता
अख़बारों में मिले
हमने सीने फुलाए

दिखती थी छब्बीस जनवरी को
उनकी टुकड़ी
दूरदर्शन पर
राजपथ की धुन्ध में क़दमताल करती
हमने सीने फुलाए

कभी न हारने वाले
जाबाँज सैनिक की तरह
वे कई बार
देशभक्ति की फ़िल्मों में थे
हमने सीने फुलाए

पिता
मेरे लिए
बी०एड० की प्रवेश-परीक्षा में
दस नम्बर का अतिरिक्तांक थे
देश के लिए
एक सैनिक थे वे

मरने के दिन वह
एक दिन के लिए बने पिता
जिन्हें छूते हुए मैं
देर तक ताकता रहा उनका चेहरा
वो वैसे थे ही नहीं
जैसा पढ़ाया और दिखाया गया था
सैनिकों के बारे में

एक जर्जर शरीर था उनका
ऐसा कि जैसे लगाम बँधा थका घोड़ा
जिसके खुर नाल ठोकते ठोकते
घिस चुके थे
उनके मुँह से बहता हुआ झाग
मृत्यु के वक्त भी
देश की बात करता था
वही देश जिसके पास
पिता छोड़ आये थे
जवानी के सबसे ख़ूबसूरत दिन
 
नसों में बहता गर्म ख़ून
जिस देश को मैंने
समाचार-चैनलों व अख़बारों में पढ़ा था
उसी देश को सुना था पिता ने
अपने अधिकारियों के मुँह से

मैं पिता को देखते हुए
इतना ही समझ पाया
देश के बारे में
कि पिता ने अपने अधिकारियों को देखकर
फुलाया था सीना
मैंने उन्हें देखकर