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पहाड़ / गोबिन्द प्रसाद

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जाती हुई धूप में
बैठे-बतियाते
ये पहाड़ी लोग
मुझे लगता है अपने दुखों को
सेक-सेक कर
सुखों में बदल रहे हैं
गुनगुनाते हुए
जो देखते-देखते छीज जाएंगे
-सरकती हुई धूप की तरह
क्या सुख को
धूप के टुकड़ों की तरह
थोड़ी देर तक
और ठहराया नहीं जा सकता
...सोचते-सोचते मैं चलता हूँ
चल देता हूँ ।... मैं
उन छप्पर टीनदार ढलवा छतों की तरफ़
जहाँ से धुआँ उठ रहा है
थका-माँदा सा
यह बिन्दु है वह
जहाँ से धुँइली बास की ऐंठन
और जाती हुई धूप की टूटन
और छीजते हुए सुखों का
रास्ता अलग-अलग होता है
...सरकती हुई धूप
...छीजता हुआ सुख
...थका-माँदा धुँआ
दु:ख भी कितने रूप धरता है
सुखों की
नन्हीं-नन्हीं पुड़ियाओं के बीच!

(नारकण्डा,शिमला यात्रा के दौरान)