पाँच सैकण्ड / निलय उपाध्याय
पाँच सेकेण्ड का वह समय
पाँच जन्मों से अधिक सुखद था मेरे लिए
खड़ा था नाय गाँव के स्टेशन पर
लोकल आई
महिला स्पेशल थी
अगली का करना होगा इन्तज़ार
सोचकर खड़ा था कि पुकारा किसी ने
मुड़ के देखा -- अरे, गार्ड साहब ! आप
और सवार हो गया गार्ड के डिब्बे में
अगला स्टेशन भायन्दर
दस सेकेण्ड रूकी ,
चली तो पाँच सेकेण्ड लगा
प्लेटफ़ार्म पार करने में
क्या बताऊँ ,
कैसे बयान करूँ भाई
उन पाँच सेकेण्ड के बारे में
लगा जैसे दुनिया के
सबसे ख़ूबसूरत और सुगन्धित
अभी-अभी खिले, ओस कण भरे
तरह तरह के फूलों से खचाखच भरे
चन्दन वन की मेड़ पर निकला हूँ टहलने
हर पाँच मिनट बाद नया स्टेशन
और हर स्टेशन पर वहीं
पाँच सेकेण्ड
आह जैसे
आसमान में सितारो के बगीचे की मेड़ पर
ठूँस-ठूँस भरी
फ़ेफ़डो में साँस, आँखों में चित्र,
नाक में सुबास, नौकरी हो तो गार्ड की
ट्रेन हो तो महिला-स्पेशल
और समय हो तो सुबह का
क्यों गार्ड साहब ?
मुस्कराए गार्ड साहब
व्यंग्य था निगाहों मे, आज पूरे दिन
मेरी ड्यूटी है महिला-स्पेशल पर
कवि जी, छह बजे शाम को भी आ जाईएगा ज़रा
चलेंगे साथ, देखिएगा टहनी से टूटकर देवों के सिर
चढ़ने के बाद इन फ़ूलो का हाल
और ले जाइएगा कुछ अलग सुवास
कुछ अलग चित्र
असल ज़िन्दगी के भी