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पाँव बढ़ाते दलदल में / संजय पंकज
Kavita Kosh से
छोटे छोटे सुख की खातिर
बड़े दुःखों के निर्माता हम!
किस सम्मोहन में हम उलझे
फँसे हुए हैं किस जंगल में
रोज अमंगल होता फिर भी
पाँव बढ़ाते हम दल-दल में
हलचल को आमंत्रित करते
क्रन्दन के हैं उद्गाता हम!
छतरी तान चले छाया में
और घाम में आग तापते
उल्टा माथा करते भी क्या
जहाँ नापना वहाँ मापते
खुद से खुद की ठनती तब भी
बन जाते भाग्य विधाता हम!
जिस डाली पर हमें बैठना
बैठेंगे तो काटेंगे भी
कालिदास के वंशज हैं हम
खन्दक खाई पाटेंगे भी
फर्क करें तो फर्क नहीं है
फर्कों के भी भरमाता हम!