पाजेब कहती है / संतोष श्रीवास्तव
मैं तुम्हारे शहर में
अजनबी हूँ सुल्तान अब्राहिम
तुम्हारी बादशाहत की
गवाही देता शहर बुखारा
पर कहीं नहीं दिख रहे
तुम्हारे अठारह लाख
घोड़ों ,हाथियों के निशान
तुम्हारे सवा लाख के जूते
हीरे ,पन्ने ,जवाहरात
कुछ भी तो नहीं
एक सन्नाटा है
तुम्हारी बादशाहत का
सूने वीरान महल ,दरीचे
न जाने क्यों मौन हैं
तिलिस्म सा रचती
उंगली पकड़कर
राजपथ की ओर ले जाती
गलियाँ मौन घुटन
और सन्नाटे से भरी हैं
इन गलियों में घूमते हुए
सुल्तान अब्राहिम
मैंने तुम्हारी
सोलह हज़ार पटरानियों के
महल भी देखे
महल के हरम भी देखे
हम्माम भी देखे
मीना बाजार भी देखे
जहाँ बिकते थे जिस्म
तुम्हारी हवस और विलासिता की
गवाही देते सारे के सारे
बुर्जियाँ, नक्कारखाना,
दीवानेखास बारादरी
उठते बैठते कबूतर
एक ठंडा सन्नाटा
एक दर्द भरा इतिहास
सोलह हज़ार मलिकाओं का
चलते चलते रुकी हूँ
सुनाई दी है पाजेब की
समवेत आवाजें
छन छन छन छन
जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंदे
तुम नहीं हो सुल्तान अब्राहिम
पर तुम्हारे औरत पर किए
जुल्म जिंदा है
उन जिंदा जुल्मों के साथ
तुम भी सुलग रहे हो
आसान नहीं है
औरत पर जुल्म कर
एक पल को भी चैन पाना