भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी बनकर आऊँ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गरमी के मारे मुझको तो ।
रात नींद ना आई।
बादल से धरती ने पूछा।
कब बरसोगे भाई।
बादल बोला पास नहीं है।
बदली पानी वाली।
ईंधन की गरमी से मैं हूँ।
बिलकुल खाली खाली।
पर्यावरण प्रदूषण इतना।
रात घुटन में बीती।
पता नहीं कब दे पाऊँ जल,
प्यारी धरती दीदी।
अगर प्रदूषण कम करवा दो।
शायद कुछ कर पाऊँ।
हरे घाव में मलहम-सा मैं।
पानी बनकर आऊँ।