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पिछली हर गंध को / कुमार रवींद्र

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पिछली
हर गंध को
सहेज रही फुलवंती
 
केसरवन महका था
अंगों में उसके कल
खड़काई थी रघु ने
उसके मन की साँकल
 
रघु के सँग
सुख की थी
सेज रही फुलवंती
 
एक बरस खेत-पात
सूखे की भेंट हुए
घर-घर में
राजा के ज़ालिम आखेट हुए
 
रघु जूझा
तबसे
निस्तेज रही फुलवंती
 
घूम रही अब है वह
मुरझाई देह लिये
रात-रात उसने हैं
कितने ही ज़हर पिये
 
खत
पिछले सपनों को
भेज रही फुलवंती