भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पीर / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हलाहल का भीषण उत्ताप
विषम बड़वा की दु: सह ज्वाल
नीलिमा का मार्मिक परिताप
नियति की उलझन का शैवाल
छिपाये लहरों में गंभीर
पालता जलनिधि किसकी पीर?

भ्रमित सूनेपन में अविराम
धरे छाती पर इतना भार
विकल किसका रटती-सी नाम
भरे अन्तर में हाहाकार
तपन के सहती तीखे तीर
पालती धरणी किसकी पीर?

विकल किसके उर का यह ज्वार
पहाड़ी प्रान्त-वनों में फूट
चलानिर्झर'हर हर' उच्चार
सजल-से किन नयनों से छूट,
विकट प्रस्तर के पट चीर,
पालता किस निर्मम की पीर?

कुटिल रेखाओं का विधि-जाल
भाल-भू पर यह पर्वतमाल
हठी योगी, समाधि में लीन,
साधना का कठोर व्रत पाल
मौन यह कौन, प्राण-प्राचीर
बाँध शत-शत रहस्य की पीर?

छाँह में जिसकी सुभगस्फीत
विश्व पाता करुणा की वृष्टि,
उसी की आकृति कातर-भीत,
बनी सूनी किस दुख से दृष्टि?
नयन में भर नीलम-सौवीर
पालता अम्बर किसकी पीर?

भरी आँखें, भारी-सा कण्ठ,
भरे किसकी बिजली-बिरहाग,
चकित, किसका पाकर संकेत,
भरे स्वर में कैसा यह राग,
आँक उर में श्यामल तस्वीर
पालते बादल किसकी पीर?

मुझे भी जाने क्यों अनजान
पड़ गयी है कुछ ऐसी बान,
विभव भव का लगता विषपान,
वेदना ही शाश्वत निर्वाण,
पीर दी है जिसने बेपीर,
उसी के प्राण, उसी की पीर।

मरण-जीवन का यह अभिमान,
तुम्हारा एकमात्र अभिज्ञान,
प्रवासी की पूँजीशृंगार
देव! तुमसे ही पाया दान,
छील लेना न इसे, हे धीर!
बनी रहने दो मेरी पीर।