प्यार दो / संगीता शर्मा अधिकारी
हां मैं हिजड़ा हूं, गुर हूं,
मामू हूं, किन्नर हूं, छक्का हूं
और न जाने क्या - क्या हूं मैं
पर क्या मैं मनुष्य नहीं
क्या मुझ में जज्बात नहीं
क्यों, क्यों मुझे हमेशा
देखा जाता है
औरत और मर्द के ही चश्मे से
क्या मेरा खुद का कोई वजूद नहीं !!!!
क्या मैं नहीं रह सकता
अपने उस शरीर में
जिसे मैं चाहता हूं
क्या नही पहन सकता
अपनी पसंद के कपड़े
लगा सकता लिपस्टिक
माथे पर बड़ी गोल लाल टिक्की
हाथों में हरी लाल चूड़ियां
नाखूनों पर नेल पेंट
पायल पैरों में,
नाक में नथनी और कान में बाली
क्या मुझे ही जिंदगी के हर मोड़ पर
सुनने मिलेगी सबसे गाली कि
तुम तो हो सिर्फ़
एक ताली बजाने वाली।
सुनो,
सुनो मुझे यूं न दुत्कारों, न चिढ़ाओं
मेरी हर ताली पर ना तुम
मुझ पर यूं गाली बरसाओ
मेरी लचकती चाल पर ना तुम
अपनी गंदी नज़रें टिकाओ
मेरे भी दर्द को समझो
मेरी संवेदनाओं को जिओ
मुझे तुम यूं न ठुकराओ।
सब की ही तरह
मुझे भी अधिकार है जीने का
अपने सपनों की
हौसलों की ऊंची उड़ान को सीने का
मैं भी तुलसी हूं
नन्हीं किलकारी हूं
किसी के आंगन की
एक अमानत उस परवरदिगार की
जिसने मुझे इस देह के साथ
इस दुनिया में भेजा
इसमें मेरा क्या कसूर
यह सब तो है कसूर
तुम्हारी नजरों, तुम्हारी सोच का।
त्योहार, शादी ब्याह,
बच्चे के जन्म, मुंडन
सभी खुशी के अवसरों पर
तुम हमेशा रखना चाहते हो
मेरा हाथ तुम्हारे सर पर और
मेरी जुबां से निकले
ढेर सारी दुआएं,आशीष
तुम्हारी शुभेच्छाओं के
लेकिन नहीं पसंद तुम्हें
मेरे साथ बैठना, बतियाना,
चाय की चुस्की लगाना
अपने जिगर का टुकड़ा कहलाना।
क्लास में संग संग पढ़ना
ऑफिस में एक साथ काम करना
यहां तक कि अपना टॉयलेट तक
शेयर न करना
यह कैसा दोगलापन
ये कैसा व्यवहार है तुम्हारा
हो सके
गर हो सके तो हमारे प्रति
अपने इस व्यवहार को बदलो
जाने कब हो जाएं प्राण पखेरू
दो पल की इस जिंदगी को
न यूं ही व्यर्थ बेकार करो
अब तो कुछ संभलो
कुछ पल संग हमारे भी हंस लो
ज्यादा कुछ नहीं चाह
ज़्यादा कुछ नहीं हम मांगते
हो सके तो
हमें भी प्यार दो
प्यार दो
सिर्फ प्यार दो