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प्रकृति चक्र / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
दिवस का अवसान देख
खिल उठती है कुमुदिनी
मुरझा जाती है कमलिनी
नहीं देख पाती दोनों
एक दूसरे के खिले मुख
एक ही जल तत्व में
जन्म लेने के बावजूद
जबकि जड़ें आपस में
उलझी रहती हैं
पत्ते भी गले मिलते हैं
समीर की छुअन से
नहीं जान पातीं दोनों
एक दूसरे का सुख सुख
कितना गलाया है इस बार
पूस के जाड़ों ने
कितना तपाया है नौतपे ने
कितना झकझोरा है
सावन भादो ने
नहीं दूर कर पातीं
एक दूसरे की पीड़ा, टूटन
उजली और अंधेरी
पानी की सतह पर
मुंदी और खिली
उद्दीप्त और शांत
प्रकृति के
अनवरत चक्र में फंसी
बहुत कोमल कुमुदिनी
सूरज से कुम्हलाई
बहुत कोमल कमलिनी
चाँद से कुम्हलाई
अवसान प्रतिदिन का
प्रतिदिन की विवशता
एक सुमन रूप की