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प्रजा / शरद कोकास
Kavita Kosh से
कम्बल के छेदों से
हाड़ तक घुस जाने वाली
हवा के ख़िलाफ़
लपटों को तेज़ करते हुए
वह सुना रहा है
आग के आस-पास बैठे लोगों को
राम वनवास की कथा
राम थे अवतारी पुरुष
राम ने आचरण किया
सामान्य मनुष्य की तरह
राम हैं सब जगह
राम हैं हमारे-तुम्हारे भीतर
अवचेतन से बसे चरित्र की
विवेचना करते हुए
वह विस्मय भर देता है
सबकी आँखों में
गर्व से कहता है
यह तमाम बातें
कल सुनी थीं मालिक के घर
एक पहुँचे हुए सन्त के मुख से
चिंगारी की तलाश में
फूँकते हुए राख का ढेर
वह सोचता है
राम तो राजा थे
उसके मालिक भी राजा हैं
उसकी नियति तो बस
प्रजा होना है।