प्रतिमान / मनोज कुमार झा
वो एक पुरानी दुकान बब्बन हलवाई की
वहाँ मिठाइयों से मक्खियाँ भगा रहे एक वृद्ध
स्वाद बचाने का कोई व्रत हो कदाचित ।
कहते हैं सन् बयालीस की लड़ाई में इनकी टाँग टूट गई थी
गोतिया था लिखने-पढ़ने में होशियार सो उठा रहा स्वतन्त्रता-पेंशन ।
इनके जीभ में किसी जिन्न का वास है
तुरन्त बता देंगे किस दुकान का है पेड़ा ।
बाइस कोस से आता था इनको न्योता
तीस साल से था इनके हाथ में पीतल का लोटा सवा किलो का
दो साल पहले कोई छीन ले गया धुँधलके में ।
चौक के तीन-चार हलवाई इनसे पैसे नहीं लेते
आख़िरी टिकान इनकी हुनर की इज़्ज़त का ।
खानें की चीज़ें अब बहुत दूर से आने लगी हैं
इन्हें अच्छे लगते डिब्बे-काग़ज़ में बँधा रंगों और अक्षरों का गुच्छा
एक बार एक लड़के ने दिया था कुछ निकालकर
तो इन्हें अच्छा लगा था स्वाद-थोड़ा नया थोड़ा परदेसी-सा
मगर ये अचरज में कि डिब्बे से पता चलता है स्वाद
थे हैरान सोचते हैं कि कहाँ-कहाँ से आता होगा अन्न,
कहाँ-कहाँ से शक्कर
कितने बड़े होंगे कड़ाह और फिर कैसे फेंटता होगा कोई
कि बराबर डिब्बे में बराबर स्वाद
और क्या घोल देते हैं जिह्वा-द्रव में कि मुड़ा हुआ स्वाद भी लगे सीधा ।
हमारे इस संसार की छाया में खड़े वे हाथ हिला रहे हैं
जगमग रोशनियों और चकमक अक्षरों के पीछे थरथरा रही इनकी देह
दो बाँचने इनकी आँखों को भी दुनिया और इनके जीभ को स्वाद ।