प्रभात की पहली किरण / अनीता सैनी
प्रभात की पहली किरण ने
कुछ राज़ वफ़ा का सीने में यूँ छिपा लिया
पहनी हिम्मत की पायल पैरों में
हृदय में दीप विश्वास का जला दिया
और चुपके से कहा-
घनघोर बादल आकांक्षा के
उमड़ेंगे चित्त पर
विचलित करेगी वक़्त की आँधी
तुम इंतज़ार मेरा करना।
हम फिर मिलेंगे उस राह पर
हमदम बन हमसफ़र की तरह
होगा सपनों का आशियाना
गूँथेंगे एक नया सवेरा।
कुछ खेल क़ुदरत का यूँ रहा
तसव्वुर में एक महल यूँ ढ़हा
इन बैरी बादलों ने छिपाया
मासूम मन मोहक मुखड़ा उसका।
नज़र आती थी वह खिड़की में
फिर वहाँ ख़ामोशी का हुआ बसेरा
छूकर फिर लौट जाना
मेरी मासूम मुस्कुराहट पर
मुस्कुराते हुए लौट आना।
कुछ पल ठहर उलझा उलझन भरी बातों में
फिर लौट आने की उम्मीद थमा हाथों में
धीरे-धीरे बादलों के उस छोर पर बिखर
सिसकते हुए सिमट जाना
मेरे चकोर-से चित्त को समझाते हुए जाना।