प्रलयोल्लासिनी / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'
बैठ हिमालय-शैल-शिखर पर
करती हूँ मैं सूर्य-निनाद!
तैर रहा है आसमान में
मेरे यौवन का उन्माद!
नग्न-चिता की ज्वालाओं में
हँसती हूँ मैं फूल-समान!
आग लगाता है दुनिया में
मेरा क्रोध प्रबल भयमान!
ध्वंस-पाठ रटती रहती हूँ
मैं कृपाणधारिणी कराल!
खोज रही हूँ खूनी-खल को
मैं तरेर कर आँखें लाल!
सुकवि छेड़ता प्रलय-विपंची
झूम-झूम उन्मत्त महान!
मैं पगली-सी विहँस-विहँसकर
गाती हूँ विनाश का गान!
रवि की आँखें फोड़, गर्व से
करती हूँ प्रचण्ड हुंकार!
मेरी ओर विलोक, भयातुर
विश्व कर रहा हाहाकार!
लहूपी रही गट्ट-गट्ट मैं
समर-भूमि में मदमाती!
तांडव करती हूँ पिशाचिनी
रौंद धरत्री की छाती!
साज रही चुन-चुन चिनगारी
चिता-सेज मैं अति अभिराम!
सोऊँगी, फिर जागूँगी, फिर
प्रलय मचाऊँगी मद्दाम!
फूल रहा है जीवन-वन में
सुंदर सर्वनाश का फूल!
मैं आँधी बन घूम रही हूँ
छूकर विश्व-वेदना-कूल!
बड़वानल मेरी उमंग है
झंझा है मेरा अभिमान!
मैं शंकरा भस्म कर देती
पाप, ताप, अपयश, अपमान!
भुजंगिनी हूँ खा जाऊँगी
मृत्यु-लोक सुंदर-सुरलोक!
विधि की दर्पहारिणी हूँ मैं
मुझे न भय चिंता या शोक!
जीवित रहती रक्त-पिपासा
मेरे मन में चिर-चंचल!
मैं उल्लासमयी हूँ, मेरी
प्रलय, यही धुन है पागल!
30.1.29