भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रारब्ध पर्व / अमरेंद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘‘देवता हे रश्मियों के, रश्मियों के देहधारी,
कौन हैं, क्या काम है, मुझसे हुई क्या भूल भारी ?
केश स्वर्णिम, भौंह स्वर्णिम, रोम स्वर्णिम,
रश्मियों-सी मूँछ-दाढ़ी, देह; जैसे, व्योम स्वर्णिम ।

‘‘आ गये क्या दण्ड देने, तो मुझे स्वीकार है वह,
सच कहूँ इस दीन पर तो दण्ड भी उपकार है यह;
जानती हूँ भूल अपनी जो खड़ी है पाप बन कर,
शांति जीवन का हरेगी आज से यह शाप बन कर।

‘‘जिस समय गंगा के तट से स्वामी ने शिशु को उठाया,
मेरे मन में एक शंका, एक भय आकर समाया;
यह नहीं सामान्य शिशु है, देवता का अंश है यह,
पुण्य के आलोक का ही भूमि पर अवतंश है यह ।

‘‘पर रही न याद कुछ भी, देख शिशु को मोह छाया,
दूध उमड़ा जो नशों में वह हृदय पर उतर आया;
आज सम्मुख देवता के पाप मेरा खुल गया है,
क्यों मुझे लगता है मेरी देह में विष घुल गया है ।

‘‘जो किया, जो कुछ हुआ, शिशुहीन होने से सभी तो
कुछ नहीं बासी हुआ है सुख विगत का वह अभी तो।
बस यही अपराध मेरा, पाप मेरा, भूल मेरी,
देवता हे रश्मियों के, रश्मियों के देह धारी !’’

सुन के यह अधिरथ-प्रिया की बात मधुमय,
हो गया कंचन रजत-सा फंेक विस्मय;
और बोले सूर्य फिर स्वर की सुधा में,
‘‘व्यर्थ ही हो अंगबाला इस व्यथा में ।

‘‘मत करो मन को मलिन यूँ, तुम धरा की श्रेष्ठ नारी,
आज तुमसे हो रहा है देवता का पुण्य भारी;
तुमसे जो पालित हुआ है, अंग देवी; पुत्र मेरा,
घोर तम में दृष्टि खोले देखता अरुणिम सवेरा ।

‘‘जो तुम्हारी गोद में है खेलता, कुन्ती-तनय है,
भाग्य कुछ विपरीत समझो, इसलिए ऐसा समय है ।
लोक का भी भय प्रबल था, कुल का उससे कम नहीं था,
एक विभ्रम फैलता-सा बस वहाँ, कुछ सम नहीं था ।

‘‘मन किसी का, तन किसी का, गोद किसकी क्या है खेला,
एक नारी है अकेली, एक नर हूँ मैं अकेला;
जन्म देकर कुन्ती कितनी रोई थी उस क्षण अकेली,
अश्रु से भीगी हुईं थी, रक्त से लथपथ हथेली ।

‘‘आ गई थी तट नदी के उस निशा की बांह पकड़े,
इस तरह कुछ बस अभी ही टूक छाती, साँस उखड़े ।
उस अंधेरी रात में ही एक डेंगी में सुला सुत,
लकड़ियों का घर बनाकर देखती ही रही, अद्भुत ।

‘‘उस समय क्या कर सकी थी मुझको ही वह विस्मरण,
टूटता था धैर्य मेरा, वज्र मन का आचरण;
विनती की थी देवियों की, देवताओं को झुका सर,
आज तक भूला नहीं हूँ झर रहे थे नयननिर्झर ।

‘‘माँ की ममता खुल पड़ी थी; ज्यों अधिर बरसात आदिम,
सूर्य का मैं ताप लेकर जल रहा था दीप मद्धिम;
घुल रहा था करुण स्वर में तीर पर मेरी प्रिया का,
बस निवेदन, बस निवेदन, बस निवेदन अक्षरा का ।

‘‘किस तरह से वरुण सम्मुख गिड़गिड़ाई थी पृथा तब,
‘याचना जाए ना मेरी हे वरुण निष्फल वृथा तब;
हे पवन के देवता वसुषेन के रक्षक रहो अब,
नील नभ में रम रहे जो याचना मेरी सुनो सब !

‘आपदाओं से बचाना मेरे शिशु को संकटों से,
अंक में अपने बसाए काल की सब करवटों से !
भूमि के हे देवता, वसुषेन के तुम साथ हो लो,
हो जहाँ पर कर्ण मेरा, तुम वहीं पर प्राण घोलो !’

‘‘इस तरह कातर पृथा की याचना चलती रही थी,
और शिशु को ले पिटारी धार पर बहती रही थी;
चल पड़ा था मैं पिटारी की ही गति से, दृष्टि डाले,
शांत करता पवन, जल को, व्योम-भू सबको संभाले ।

‘‘अंग की हे देवबाला, क्या कथा तुमसे बताऊँ,
और क्या विभु से छिपा है, आज जिसको मैं छिपाऊँ !
कब पृथा यह चाहती थी, हो कुँआरे में शिशु यह,
लोकलज्जा-हानि घर की, आयु का डर घोर रह-रह ।

‘‘बहुत ही अनुनय किया था, लौट जाऊँ मैं वहाँ से,
मैं विवश रतिबद्ध, कैसे लौट जाता फिर वहाँ से;
रक्त की अठखेलियों से मैं हुआ वशीभूत था तब,
चित्त को अब जो डराता, मैं वही अवधूत था तब।

‘‘तन गई थी रीढ़ तन की, एक बस आवेग हू-हू,
बुद्धि मेरी थी हवा पर, चेतना जलती थी धू-धू ।
शोर ऐसा हो गया था, सुन न पाया था रुदन को,
तोड़ आया था अभय बन शांति के पावन भवन को ।

‘‘देह का यह आचरण सचमुच बहुत कुत्सित पतित है,
देवता के इस भयावह कर्म से दानव चकित है;
तब कहाँ था सूर्य मैं ही, जो तमस को लील लेता,
भाव मन में दौड़ता था सृष्टि का मैं ही विजेता ।

‘‘याचना सारी पृथा की व्यर्थ ही जाती रही थी,
दोष मेरा ही कहो तुम; वह तो बिलकुल ही सही थी;
मृत्यु का यह लोक रस का, गंध का, छवि और लय का,
देह का रसमय निमंत्रण, हर हमेशा एक भय का ।

‘‘मैं अवश-सा चेतना से दूर, कुछ था तो मृदा था,
सुर-लहरियों से बंधा मैं उस समय कैसा मृगा था;
हो गयी थी वह बहुत लाचार मेरे सामने मेें,
फेेंक कर कुछ भय भरा-सा प्यार मेरे सामने में ।

‘‘सह गई थी पाप उद्धत शील-भय से हो पराजित,
जो रहा तम में घिरा ही, भोर में वह आज भाषित;
पर नहीं मैं ही अकेला दोष का भागी यहाँ पर,
था बंधा ऋषि के वचन से मैं वहाँ पर ।

‘‘आज मुझको लग रहा पर, हूँ पृथा से हीन-नीचे,
वह पुरुष सचमुच अधम है जो त्रिया पर तम उलीचे;
देवता का भय दिखा कर, कीर्त्ति का गुणगान गाकर,
मैंने कुन्ती को किया था बस विवश एकान्त पाकर ।

‘‘किस तरह से गर्भ में सेती रही वह अंश मेरा
जो तुम्हारी गोद में है खेलता अवतंश मेरा !
यह जो शिशु की देह पर है कवच; कुण्डल कान में भी
क्या कभी सोचा है इस पर, क्या कभी कुछ ध्यान में भी।

‘‘ये कवच-कुण्डल मेरी ही दी गई पहचान समझो,
यह पृथा का पुत्रा ही है, तुम जिसेे सन्तान समझो;
पर नहीं ऐसा समझना अंगराधा भूल से भी,
मैं यहाँ आया हूँ लेने पुत्रा अपना, अंगदेवी ।

‘‘जन्म पाया है पृथा से, दूध पीया है तुम्हारा,
कर्ण पर अधिकार उतना जितना कि इस पर हमारा;
गुरु बनूँ वसुषेन का मैं, अब यही बस चाहता हूँ,
क्यों न चाहूँगा भला मैं, जन्म मुझसे है, पिता हूँ।

‘‘सारी विद्याएं सिखा कर लौट जाऊँगा, सुनो तुम,
मैं पृथा का पुत्रा लंँूगा, ऐसा कुछ भी मत गुनो तुम !
जो पिता का धर्म है, जो कर्म है, करना ही होगा,
रिक्त जो कुछ रह गया है, अब उसे भरना ही होगा ।

‘‘पुण्य का क्षण आ गया है, हाथ कैसे रोक पाऊँ,
पुत्रा को सब दान देकर भूमि अपनी लौट जाऊँ !
इस समय से, इस क्रिया से अंग का उत्थान होगा,
कर्ण मेरा एक दिन इस अंग का भगवान होगा ।

‘‘शौर्य की इसकी कथा भू, गगन, जल, वायु लिखेगी,
आग भी भयभीत होगी-जब कभी आयु लिखेगी ।
अंग की बाला, सुनो तुम, कर्ण यह वसुवर्म ही है,
यह नहीं वसुषेन केवल, इस धरा का धर्म ही है ।

‘‘पूर्व जीवन में यही इस लोक का नरश्रेष्ठ था यह,
आचरण के सब गुणों से ही सुगंधित बहुत महमह;
और फिर ऐसा हुआ घनघोर तम में लीन होकर,
पा लिया सानिध्य मेरा, देह की सीमाएं खोकर ।

‘‘खुश हुआ तो वर यही मांगा ‘मिले रविरूप अब तो,
और मुझको चाहिए क्या, जब मुझे है प्राप्त सब तो !
स्वर्ण के ये कवच-कुंडल दीप्त हों मेरे भी तन पर,
जिस तरह कि शोभते हैं आपके स्वर्णिम बदन पर ।

‘मुक्ति मुझको प्राप्त होगी काल के बंधन-तमस से,
सब तरह के ताप से क्या, भयकरण चंचल वयस से ।’
‘‘मैं विवश अपने वचन से, ले लिया निज लोक में था,
अब वही इस लोक का नर आके मेरे ओक में था ।

‘‘रूप मेरा, वस्त्र मेरा, कवच-कुंडल एक जैसा,
स्वर्ग में तो आज तक देखा नहीं था साम्य ऐसा ।
घूमता नभ में विचरता; कुछ कहाँ प्रतिबंध क्या था ?
छुट गया था इस धरा से हर तरह का मोह इसका ।

‘‘बाँटता था, जो इसे था प्राप्त ईश्वर से, अघा कर,
क्या कहें, कितना प्रफुल्लित था वो ऐसी देह पाकर;
जो मिला स्वभाव उसको था, उसी में लीन रहता,
हर घड़ी दुख-शोक के सर पर चढ़ा आसीन रहता ।

‘‘एक दिन ऐसा हुआ पहुँची वहाँ ऋिषि एक कन्या,
रूप-गुण में अप्रतिम थी, जो निस्सन्देह थी अनन्या।
देख कर वह मुस्कराई थी, इधर उत्तर नहीं था,
चाहती थी मन इधर हो, और उसका मन कहीं था।

‘‘कुछ खुले से अंग उसके और फूलों से ढके थे,
फिर झुका क्या वह? भले ही देख यह तो सब झुके थे।
जब सुनी नरश्रेष्ठ की सखी से प्रशंसा, जल गई थी,
ईर्ष्या से एक क्षण में बुद्धि उसको छल गई थी ।

‘‘दारु सूखे पर गिरी हो आग जैसे ही अचानक,
भ्रांत मति का हो उठा था नृत्य कैसा वह भयानक !
दे दिया अभिशाप तत्क्षण, नर बनो, नरलोक जाओ !
अब धरा के सुख-दुखों के बीच ही जीवन बिताओ !

‘‘शाप तो फिर शाप ही था, क्या निवारण और होता,
कुछ कहीं होता अगर तो क्या न उस पर गौर होता ।
आ गया नररूप धर कर इस धरा पर, मैं विवश था,
कर्ण का इस जन्म में भी यश वही, पहले जो यश था।

‘‘जन्म के ही साथ इसको कवच-कुंडल दे दिया है
हो मनोरथ पूर्ण इसकी, इसलिए ऐसा किया है;
अंगबाला, जो तुम्हें बालक मिला है, यह वही है,
कह रहा हूँ मैं तुम्हें जो, सत्य है, बिल्कुल सही है।

‘‘रूप जितना भी अलग हो देह ले कर, गुण अटल है,
शेष सौरभ हो न जिसका कुछ कभी भी, वह कमल है।
कुछ दिनों तक साथ रख कर सौंप दूँगा मैं तुम्हें फिर,
क्योंकि कुंती ही नहीं, तुम भी तो हो माँ इसकी आखिर ।

‘‘कुछ दिनों में कर्ण मेरा हर कला में सिद्ध होगा,
वीर तो ऐसा कि इससे काल भी जा बिद्ध होगा;
इसलिए हे अंगबाला, कर्ण को अब सौंप दो तुम,
कुछ दिनों के वास्ते बस। सोच मेें कुछ मत बहो तुम !’’

ग्रीष्म में ज्यों मेघ की ठंडक बरसतीं व्योम से है,
याकि जैसे बह चली रस की नदी ही सोम से है;
पी श्रवण से शांत राधा बोल उट्ठी हो विमोहित,
‘‘अब नहीं मन में कहीं कुछ भाँति-भय, सब कुछ तिरोहित ।

‘‘देवता हे रश्मियों के, सोच में मैं क्यों बहूँगी,
पुत्रा का कल्याण जिसमें क्यों न ऐसा दुख सहूँगी ।
कर्ण मेरा वीर हो, योद्धा विकट हो श्रेष्ठतम यह,
रोक लूँ मैं मोह कारण, नीचता है नीचतम यह ।

‘‘यह नहीं मेरा ही सुत है, यह पृथा-गंगा का सुत है,
तब भला मैं न कहूँ क्यों, जो कि मंगल भावयुत है ।
देवता हे रश्मियों के, आप का सुत आप जैसा,
यह तो सुख संचार करता, इसमें तब हो ताप कैसा ?’’

जो हुआ संवाद, पुलकित किस तरह से, हर्ष भी है,
हो रहा कर्पूर का मन, सब तरह से मर्ष भी है ।
फूटती हैं रश्मियाँ; ज्यों, हेम की छाई परत-सी,
सृष्टि सारी हँस रही है शोक-दुख से हो विरत-सी ।
सामने राधा खड़ी है सूर्य सम्मुख ही खड़े हैं,
एक जैसे भाव से वे जुड़ रहे हैं, वे जुड़े हैं ।