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प्रीत डगर पर / संजय पंकज
Kavita Kosh से
रात चाँदनी चुपके आई
खिड़की से सिरहाने में!
सुबह सुबह तक रही सुबकती
लीन रही दुलराने में!
पता नहीं क्यों लापता रही
कितने दिन बेगानों-सी
इधर रही पर मेरी हालत
कुछ पागल दीवानों-सी
आते आते देर हुई कुछ
कुछकि और बतलाने में!
जगते जगते सोते रहना
मजा नहीं बतला सकता
कहने पर भी कुछ भावों को
कभी नहीं जतला सकता
प्यार सदा ही रहा अनाड़ी
जी भर जी बहलाने में!
प्रीत डगर पर थकन नहीं है
युगों युगों से चलकर भी
मौन मुखर मन रहे अधूरा
मन से मन भर मिलकर भी
लग जाती है आग तुरत पर
होती देर बुझाने में!