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प्रेमचंद के जूते / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
आज तलक भी फटे हुए हैं
प्रेमचंद के जूते
‘सोज़े-वतन’ देखकर रोता
आज देश की हालत
पूँजी है जन की अधिनायक
करती कलम वकालत
छुई-मुई सब हो जाते हैं
सत्य-मर्म को छूते
अब भी गोबर नहीं समझता
झुनिया की लाचारी
अलगू, जुम्मन रोज़ कर रहे
दंगे की तैयारी
अब भी लाठी ज़ोर दिखाती
फूटतंत्र के बूते
बदल-बदल कर रूप सामने
खड़ा पूस का कंबल
होरी का गोदान अभी तक
खोज रहा जीवन-हल
प्रासंगिक दुख रहे हमेशा
पर सुख रहे अछूते