प्रेमासक्ति / सुजान-रसखान
सवैया
प्रान वही जू रहैं रिझि वा पर रूप वही जिहि वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पर अंक वही जिन वा परसायौ।।
दूध वही जु दुहायौ री वाही दही सु सही जु वही ढरकायौ।=
और कहाँ लौं कहौं रसखानि री भाव वही जु वही मन भायौ।।125।।
देखन कौं सखी नैन भए न सबै बन आवत गाइन पाछैं।
कान भए प्रति रोम नहीं सुनिबे कौं अमीनिधि बोलनि आछैं।।
ए सजनी न सम्हारि भरै वह बाँकी बिलोकनि कोर कटाछै।
भूमि भयौ न हियो मेरी आली जहाँ हरि खेलत काछनी काछै।।126।।
मोरपखा मुरली बनमाल लखें हिय कों हियरा उमह्यौ री,
ता दिन ते इन बैरिनि को कहि कौन न बोल कुबोल सह्यौ री।।
तौ रसखानि सनेह लग्यौ कोउ एक कह्यौ कोउ लाख कह्यौ री।।
और तो रंग रह्यौ न रह्यौ इक रंग रँगी सोह रंग रह्यौरी।।127।।
बन बाग तड़ागनि कुंजगली अँखियाँ मुख पाइहैं देखि दई।
अब गोकुल माँझ बिलोकियैगी बह गोप सभाग-सुभाय रई।।
मिलिहै हँसि गाइ कबै रसखानि कबै ब्रजबालनि प्रेम भई।
वह नील निचोल के घूँघट की छबि देखबी देखन लाज लई।।128।।
काल्हि पर्यौ मुरली-धन मैं रसखानि जू कानन नाम हमारो।
ता दिन तें नहिं धीर रखौ जग जानि लयौ अति कीनौ पँवारो।।
गाँवन गाँवन मैं अब तौ बदनाम भई सब सों कै किनारो।
तौ सजनी फिरि फेरि कहौं पिय मेरो वही जग ठोंकि नगारो।।129।।
देखि हौं आँखिन सों पिय कों अरु कानन सों उन बैन को प्यारी।
बाँके अनंगनि रंगनि की सुरभीनी सुगंधनि नाक मैं डारी।
त्यौं रसखानि हिये मैं धरौं वहि साँवरी मूरति मैन उजारी।
गाँव भरौ कोउ नाँव धरौं पुनि साँवरी हों बनिहों सुकुमारी।।130।।
तुम चाहो सो कहौ हम तो नंदवारै के संग ठईं सो ठईं।
तुम ही कुलबीने प्रवीने सबै हम ही कुछ छाँड़ि गईं सो गईं।
रसखान यों प्रीत की रीत नई सुकलंक की मोटैं लईं सो लईं।
यह गाँव के बासी हँसे सो हँसे हम स्याम की दासी भईं सो भईं।।131।।
मोर पखा धरे चारिक चारु बिराजत कोटि अमेठनि फैंटो।
गुंज छरा रसखान बिसाल अनंग लजावत अंग करैटो।
ऊँचे अटा चढ़ि एड़ी ऊँचाइ हितौ हुलसाय कै हौंस लपेटो।
हौं कब के लखि हौं भरि आँखिन आवत गोधन धूरि धूरैटो।।132।।
कुंजनि कुंजनि गुंज के पुंजनि मंजु लतानि सौं माल बनैबो।
मालती मल्लिका कुंद सौं गूंदि हरा हरि के हियरा पहिरैबौ।
आली कबै इन भावने भाइन आपुन रीझि कै प्यारे रिझैबो।
माइ झकै हरि हाँकरिबो रसखानि तकै फिरि के मुसकेबो।।133।।
सब धीरज क्यों न धरौं सजनी पिय तो तुम सों अनुरागइगौ।
जब जोग संजोग को आन बनै तब जोग विजोग को मानेइगौ।
निसचै निरधार धरौ जिय में रसखान सबै रस पावेइगौ।
जिनके मन सो मन लागि रहै तिनके तन सौं तन लागेइगो।।134।।
उनहीं के सनेहन सानी रहैं उनहीं के जु नेह दिवानी रहैं।
उनहीं की सुनै न औ बैन त्यौं सैंन सों चैन अनेकन ठानी रहैं।
उनहीं संग डोलन मैं रसखान सबै सुखसिंध अघानी रहैं।
उनहीं बिन ज्यों जलहीन ह्वै मीन सी आँखि अंसुधानी रहैं।।135।।