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प्रेम लीला / सुजान-रसखान

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कवित्‍त

कदम करीर तरि पूछनि अधीर गोपी
          आनन रुखोर गरों खरोई भरोहों सो।
चोर हो हमारो प्रेम-चौंतरा मैं हार्यौ
          गराविन में निकसि भाज्‍यौ है करि लजैरौं सो।
ऐसे रूप ऐसो भेष हमैहूं दिखैयौ, देखि।
          देखत ही रसखानि नेननि चुभेरौं सो।
मुकुट झुकोहों हास हियरा हरौहों कटि,
          फेटा पिपरोहों अंगरंग साँवरौहौं सौ।।53।।

सवैया

भौंह भरी सुथरी बरुनी अति ही अधरानि रच्‍यौ रंग रातो।
कुंडल लोल कपोल महाछबि कुंजन तैं निकस्‍यौ मुसकातो।।
छूटि गयौ रसखानि लखै उर भूलि गई तन की सुधि सातो।
फूटि गयौ सिर तैं दधि भाजन टूटिगौ नैनन लाज को नातो।।54।।

जात हुती जमुना जल कौं मनमोहन घेरि लयौ मग आइ कै।
मोद भर्यौ लपटाइ लयौ पट घूँघट ढारि दयौ चित चाइ कै।
और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै।
कैसे निभै कुल-कानि रही हिये साँवरी मूरति की छबि छाइ कै।।55।।

जा दिन ते निरख्‍यौ नंदनंदन कानि तजी कर बंधन टूट्यौ।
चारु बिलोकिन कीनी सुमार सम्‍हार गई मन मोर ने लूट्यौ।
सागर कों सलिला जिमि धावे न रोकी रुकै कुलको पुल टुट्यौ।
मत्‍त भयौ मन संग फिरे रसखानि सरूप सुधारस घूट्यौ।।56।।

सुधि होत बिदा नर नारिन की दुति दीहि परे बहियाँ पर की।
रसखान बिलोकत गुंज छरानि तजैं कुल कानि दुहूँ घर की।
सहरात हियौ फहरात हवाँ चितबैं कहरानि पितंबर की।
यह कौन खरौ इतरात गहै बलि की बहियाँ छहियाँ बर की।।57।।

ए सजनी मनमोहन नागर आगर दौर करी मन माहीं।
सास के त्रास उसास न आवत कैसे सखी ब्रजवास बसाहीं।
माखी भई मधु की तरुनी बरनीन के बान बिंधीं कित जाहीं।
बीथिन डोलति हैं रसखानि रहैं निज मंदिर में पल नाहीं।।58।।

सखि गोधन गावत हो इक ग्‍वार लख्‍यौ वहि डार गहें बट की।
अलकावलि राजति भाल बिसाल लसै बनमाल हिये टटकी।
जब तें वह तानि लगी रसखानि निवारै को या मग हौं भटकी।
लटकी लट मों दृग-मीननि सों बनसी जियवा नट की अटकी।।59।।

गाइ सुहाइ न या पैं कहूँ न कहूँ, यह मेरी गरी निकर्यौ है।
धीरसमीर कलिंदी के तीर खर्यौ रटै आजु री डीठि पर्यौ है।
जा रसखानि बिलोकत ही सहसा ढरि राँग सो आँग ढर्यौ है।
गाइन घेरत हेरत सो पट फेरत टेरत आनि पर्यौ है।।60।।

खंजन मीन सरोजन को मृग को मद गंजन दीरघ नैना।
कंजन ते निकस्‍यौ मुसकात सु पान पर्यौ मुख अमृत बैना।।
जाइ रटे मन प्रान बिलोचन कानन में रचि मानत चैना।
रसखानि कर्यौ घर मो हिय में निसिवासर एक पलौ निकसै ना।।61।।


दोहा

मन लीनो प्‍यारे चितै, पै छटाँक नहिं देत।
यहै कहा पाटी पढ़ी, दल को पीछो लेत।।62।।

मो मन मानिक ले गयौ, चिते चोर नंदनंद।
अब बेमन मैं क्‍या करूँ, परी फेर के फंद।।63।।

नैन दलालनि चौहटें, मन मानिक पिय हाथ।
रसखाँ ढोल बजाइके, बेच्‍यौ हिय जिय साथ।।64।।

सोरठा

प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन तें नेननि लग्‍यौ।
मन पावन चित्‍त चोर, पलक ओट नहिं सहि सकौं।।65।