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प्रेयसि-विरहित होता न तल्प मम मधु-धन होता अल्प नहीं” / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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”प्रेयसि-विरहित होता न तल्प मम मधु-धन होता अल्प नहीं”।
कहते थे “बिना मयंक-मुखी-मुख चूमे काया-कल्प नहीं।
उठता हूँ चीख कभी पागल-सा कभीं अधर-दल सीता हूँ।
मैं हूँ उत्ताल उदधि-लहरें गम खाता आँसू पीता हूँ।
मैं शुक-पिक-मैना को निहारते उत्सुक शिशु-मन चीता हूँ।
मैं हूँ घट भी, पनघट भी, नट भी, नाटक भी, मधु तीता हूँ”।
आ सर्वाश्चर्य-वपुष! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥103॥