फूल खिलें / योगेन्द्र दत्त शर्मा
फूल खिलें
आंगन या मन में
बात वही है
फूल खिलें
बाहर या भीतर
अंतर क्या है
सुख देते
आंखों को
मन को
एक गंध
उठती भीतर से
और छलकती है
बाहर को
एक गंध
बाहर से आकर
मन के भीतर
धीरे से
चुपचाप उतरती!
फूल खिलें
आंगन या मन में
हर क्षण
सरल-तरल हो उठता
खिल-खिल जाता
इन बेहद
आत्मीय क्षणों में
रंग
बहुत अपने-से लगते
जैसे हम खुद
रंगों में प्रतिबिम्बित हो कर
चमक उठे हों!
फूल खिलें
आंगन या मन में
दिन प्रसन्न
हो जाता बरबस
ऋतु उदार
हो उठती सहसा
मौसम
अंतरंग हो जाता
और स्वयं हम
सहजानंदी राग
गुनगुनाकर
उसकी अनुगूंजों की उन्मुक्त धार में
मौन डूबते-उतराते हैं!
फूल खिलें
आंगन या मन में
राग-रंग
गंधों-छंदों का उत्सव
हो जाता है हर पल
यह उत्सव
मन का उत्सव है!
पर यह
कभी-कभी होता है
नये वर्ष में
यही कामना है-
यह उत्सव
बार-बार
आये जीवन में!
फूल खिलें
आंगन में
मन में!
-17 नवंबर, 1988