भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंद होती खिड़कियां / योगेंद्र कृष्णा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी छतों के ऊपर से
अचानक गायब हो गए
आकाश में तैरते बादल के टुकड़े
 
जिनमें खुलती थीं कई-कई खिड़कियां
और हम आधी-आधी रात को भी
अपनी आंखें फाड़ कर देख लिया करते थे
खिड़कियों के उस पार से झांकते
अपने बदहवास चेहरे

मेरे पास सचमुच कोई जवाब नहीं था
जब मुझसे पूछा गया
एक दिन अचानक
इतने दिनों से बिना खिड़कियों
और बिना हवा के भी
सांस लेते रहने का रहस्य

मेरी नींद तो तब खुली
जब सिकुड़ने लगी
मेरे ही भीतर
नदियों के बहने की जगह
जब बूंद बूंद पिघलने लगी हवा
और जम गया
अपने ही भीतर का पानी

जब घर के पिछवाड़े से भी
अचानक रात के अंधेरे से
गुम हो गई एक दिन
जुगनुओं की झिलमिलाहट
और झिंगुरों की आतुर आवाजें

जब मेरे भीतर और बाहर फैले
इतने बड़े वितान में
कहीं जगह नहीं रही
तितलियों के उड़ने की