बकैती / अखिलेश श्रीवास्तव
हर चर-अचर के भीतर
एक आत्मा होती है
और मेरे?
स्त्री-कंठ का प्रश्न था
तुम्हारी आत्मा तुम्हारी देह के बाहर है
चिड़िया की तरह बैठी रहती है काँधे पर
बिजूका के हिलने की आहट पाते ही
फुर्र से उड़ जाती है
जब तब यह बिजूका है तुम देह हो।
यह पानी पर लिखी एक किताब के
पहले पन्ने पर लिखा है औरत!
सारे जीव-जन्तुओं को समान अधिकार है
जीवित रहने का!
फिर झटके से मेरी गर्दन उड़ा देने का औचित्य?
जब खाल उतरनी ही है तो पहनाता क्यों हैं बचपन में
मेरे जीवन का अधिकार लंबित है सदियों से
गर्दन बचाते हुये जिबहबेला में मेमिआते
एक अनपढ बकरे के जिरह को ख़ारिज किया
एक आसमानी किताब के बीच के पन्ने ने!
सब पदार्थ एक ही परम पिता के रचे हुए हैं
तो फिर चंदन माथे पर क्यों है
और मैं ख़ुश्बू के बावजूद पाँव में क्यों?
इस गुस्ताख प्रश्न पर ही कई फूलों की गंध
छीन ली गई
यह वाकया दर्ज है
उस किताब के आखिरी पन्ने पर
जिसके हर्फ़ हवा में उभरे थे!
इतने युगों से बरस रहा है पानी
धरती तक ठंडीे हो चली
पर इन किताबों में आग धधक रही है अब तक
खुलते ही जला देते हैं दो-चार घर!
इस उमस भरे मौसम में
मुझे उम्मीद बस दीमकों से है
वो चट कर जाये हर उस किताब का पन्ना पन्ना
जहाँ ईश्वर बैठा-बैठा
बकैती करता रहता है!