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बदलता युग (कविता) / महेन्द्र भटनागर

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लो बदलता है ज़माना !


ज्वाल जग में लग गयी है,
आग जीवन की नयी है
जल रहा है जीर्ण जर्जर टूट मिटता सब पुराना !
:
ध्वंस की लपटें भयंकर
छा रहीं सारे गगन पर
वेग अन्धाधुन्ध है जिसका असम्भव है दबाना !
:
बढ़ रहा प्रत्येक जन-जन,
रोशनी में मुक्त कन-कन,
वास्तविकता सामने आयी, न अब कोई बहाना !
:
रोष इससे तुम करो ना,
द्रोह साँसें भी भरो ना,
यह सतत बढ़ता रहेगा, व्यर्थ काँटों को बिछाना !