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बन्द करो / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
भूखों-नंगों दुखियारों की,
मानव-अधिकारों की
आवाज़ नहीं है यह !
भाई-चारे का सच्चा भाव नहीं है यह !
तूफ़ानी सागर में उलझे मानव की
उद्धारक नाव नहीं है यह !
जब संस्कृति की नंगी लाश
तुम्हारे हाथों में है,
लाखों इंसानों का ख़ून
तुम्हारे दाँतों में है
अस्मत-भक्षी दुर्गन्ध
तुम्हारी साँसों में है,
तुम करते हो
मानव-अधिकारों की बात ?
मज़लूमों की छाती पर
कर फ़ौलादी जूतों के आघात !
बस, अपने नापाक इरादों के
नारों को बन्द करो !
शोषित दुनिया के ऊपर से
गुज़र गयी है रात !
जागृति की वर्षा होती है
कागज़ की दीवारों पर
मत नक़ली रंग भरो !
मानव-अधिकारों की
आवाज़ लगाने वाले उट्ठे हैं,
अब महल
तुम्हारी थोथी मानवता का
ढह जाएगा !
जिस पर चढ़ कर ;
समता का गीत नया
हर मानव निर्भय गाएगा !