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बरक़त / सुषमा गुप्ता
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ट्रेन की खिड़की से बाहर वह देख रहा था-
खेत खलिहान और खिली हुई सरसों
मैं देख रही थी-
खिड़की के काँच पर उभरता उसका अक्स
उसने कहा- "यहाँ कितनी बरकत है"
मैंने कहा "बहुत"
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